पितृ पक्ष 2018: पितरों के प्रति आभार जताने का महापर्व

पितृपक्ष 24 सितंबर से शुरू

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दशहरे से पहले जो अमावस्या होती है, उसेमहालय अमावस्याके नाम से जाना जाता है। एक तरह से इसी दिन विजयोत्सव-रामलीलाएं और शक्तिपूजा के अनुष्ठान शुरू हो जाते हैं। जो लोग विधिवत पूजा अनुष्ठान करते हैं, वे इसी दिन से आरंभ करते हैं। रामलीलाएं यूं तो विधिवत रूप से आश्विन शुक्ल प्रतिपदा से शुरू होती हैं, परंतु उत्सव की असल शुरुआत महालय या श्राद्ध पक्ष से, पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने से होती है। कुल सोलह दिनों तक पूर्वजों के प्रति श्रद्धा और कृतज्ञ भाव व्यक्त किए जाते हैं। सोलह दिन का यह अनुष्ठान तिथियों के अनुसार है। जितने भी स्वजन-परिजन अब तक संसार से विदा हुए हैं, उनमें से प्रत्येक की विदाई की तिथि इन सोलह दिनों (पूर्णिमाऔर अमावस्या के साथ प्रत्येक पक्ष की चौदह तिथि) में जाती है।

खुद से पूछें कि मनुष्य होने की सबसे महत्वपूर्ण चीज क्या है? महत्वपूर्ण चीज यह है कि हम औजारों का इस्तेमाल कर सकते हैं। इस बारे में कुछ बातें ध्यान रखनी चाहिए। पहली तो यह कि ये दिन हमारी उन सभी पीढ़ियों को समर्पित रहते हैं, जिन्होंने हमारे जीवन के लिए किसी किसी रूप में योगदान दिया है। इन दिनों उनका आभार मानना चाहिए। नृतत्वशास्त्री कहते हैं कि मनुष्य करीब दो करोड़ साल से धरती पर है। यह कोई मामूली समय नहीं है। इन लाखों पीढ़ियों ने हमें कुछ कुछ जरूर दिया है। हम जो भाषा बोलते हैं, जिस तरह बैठते हैं, हमारे कपड़े, मकान और इमारतेंकरीब हर चीज हमें हमारी पिछली पीढ़ियों से ही मिली है।

जब धरती पर सिर्फ पशु थे, उस समय सिर्फ जीवित रहने की जद्दोजहद थी। जिस दिन जीवन को आसान बनाने के लिए मनुष्य को अपने शरीर के अलावा औजारों के इस्तेमाल की समझ गई, धरती पर वही मनुष्य जीवन की शुरुआत थी। मनुष्य ने जिंदगी के बारे में सोचना समझना और प्रयोग करना शुरू किया, उसी दिन से प्रयोग शुरू हो गए। आज जहां हम हैं, उसकी शुरुआत पूर्वजों से ही हुई। जो भी चीजें आज अपनी हैं, हम उनका महत्व नहीं समझते। लेकिन सोचें, तो पिछली पीढ़ियों के बिना हमारा कोई अस्तित्व ही नहीं होता। उनके दिए बिना हमारे पास वे चीजें होती ही नहीं, जो आज अपने पास हैं। इसलिए महालय अमावस्या उनके स्मरण और कृतज्ञता प्रकट करने का दिन है।

वैसे तो लोग अपने स्वर्गवासी माता-पिता और पूर्वजों के प्रति श्रद्धा व्यक्त करने के लिए कर्मकांड करते हैं। लेकिन ये दिन उन सभी पीढ़ियों के लिए कृतज्ञता जताने, आभार मानने और श्रद्धा व्यक्त करने के दिन हैं, जो पहले इस धरती पर आई थीं। श्रद्धा से पितरों के लिए किए गए तर्पण और पिंड दान को ही श्राद्ध कहते  हैं। एक मान्यता के अनुसार, कन्या राशि में सूर्य के आने पर पितर इहलोक में उतर आते हैं और अपने पुत्रों-पौत्रों के साथ रहते हैं। इसलिए पितृ पक्ष कोकनागतभी कहते हैं।

श्राद्ध को तीन पीढि़यों तक करने का विधान है। मान्यता है कि हर साल इन दिनों श्राद्ध पक्ष में सभी जीव परलोक से मुक्त होते हैं, जिनसे वे स्वजनों के पास जाकर तर्पण ग्रहण कर सकें। तीन पूर्वजों में पिता को वसु के समान, दादा को रुद्र देवता के समान और परदादा को आदित्य देवता के समान माना जाता है। श्राद्ध के समय यही अन्य सभी पूर्वजों के प्रतिनिधि माने जाते हैं। इस समय नई फसलों का पकना भी शुरू हो जाता है। पूर्वजों के प्रति सम्मान और आभार व्यक्त करने के लिए प्रतीक के रूप में, पहला अन्न उन्हें पिंड के रूप में भेंट करने की प्रथा रही है। मृतकों के कल्याण के लिए भारत में एक गूढ़ प्रक्रिया रही है। पहले इन अनुष्ठानों को बहुत सावधानी से किया जाता था, जिससे जीव को जीवन के दूसरे चरण में जाने की शक्ति स्वजनों के सद्भाव संवेदना से मिलती थी, उसका विकास भी निश्चित ही होता था। देश की गुलामी के दिनों में इन परंपराओं को काफी तोड़-मरोड़ दिया गया है और वे समाज से लुप्त होने लगीं।
(एक महात्मा का प्रसाद)

Reference News धर्म डेस्क, अमर उजाला Updated Sun, 23 Sep 2018 

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